Sunday, February 10, 2019

महफील थी या कोई किताब?

वो रात थी या कोई किताब,
रिहा हुए थे सारे  सवाल जवाब,
भविष्य मैं छाया हुआ था मन, 
पर न जाने क्यूँ घर बना रहा था बचपन। 
जाने थे नुस्खे किसीके और किसीके होस्ले । 
पहचाना था खुदको तब बाकी थे कुछ फैसले 
इस कदर सामने आयी कमियाँ ,
की पल को ही पूछ नी पड़ी थी अपनी कुछ खामियां ।
ना जाने कैसे और कब आयीं भाड़,
उदासी छाई सबके आड़।
मन में थे जो ख्वाब बूंदे, 
हो रहे थे कुछ धुँधले। 
कुछ हसीं खुशी के बाद, 
आ रही थी गलतीयां  याद। 
 भर आयी थी ये अखियां, 
जब याद आयी घर की गलियां।।
हम तो अभी भी उलझें थे अपनों मै,
पर बताना था हम तो काफ़ी सुलझे है सपनों मै।
बड़े दिन बाद जो हम पाच की महफील जमी थी,
कुछ आसू , कुछ बातें तो सामने आने ही वाली थी ।
कुछ बता  रहे थे, और कुछ छुपा रहे थे, 
बताने वाले को मजबूत और छिपाने
वाले को कमजोर बता कर 3 बजे की महफिल तो बर्खास्त हो गई थी।
पर मानो  सुनसान  रात भी  हमे  और सुनना चाहती थीं,
 हमे दर्द से रिहा और खुद को बेहतर बनाना चाहतीं थीं।